जीवन पर लिखी गयी कुछ कवितायें - Poetry Quotes in Hindi

जीवन पर लिखी गयी ये सभी कविताएं, हमें उम्मीद है की आपको जरूर पसंद आएगा




1. रिश्तो के इस कश्ती के

रिश्तो के इस कश्ती के
आज टूटे कितने टुकड़े है
कुछ तेरे हिस्से मिलते है
कुछ मेरे भी तो हिस्से है
क्या सोचा क्या होना है
जीवन बस इनका रोना है
ना माचिस है ना तीली है
हर बात जुबां पे सिली है
फिर भी एक आह निकलती है
एक आग की लपटे जलती है
यही जीवन का रेला है
यहाँ हर पंछी अकेला है।


2.  चश्मा चड़ा जो आँखो पर...

चश्मा चड़ा जो आँखो पर...
चश्मा चड़ा जो आँखो पर
तो लोगो ने कहा तज़ुर्बेदार आदमी है,
चलो उसी से पूछते है कितना समझदार आदमी है।
पर जब चड़ाए वही चश्मा गूजरी एक औरत
पर जब चड़ाए वही चश्मा गूजरी एक औरत
तो लोगो ने कहा माल जा रही हैं...
ओ मैडम रुको तो ज़रा, ओ चश्मेबद्दूर
क्यों है दूर दूर....
फिर जब छपी है खबर अखबारों में हुआ जो फिर चीरहरण वैदेही का लिए मोमबत्तिया
निकले बाज़ार को....
कहा रह गए यही लोग जब चीख़ रही थी वो इन्साफ को ?
कहा थे वो तजुर्बे जो परखते थे इंसानो को ?
कहा रहे वो इंसाफ के नमूने जो बस तभी फड़फड़ाए जब इज्ज़त तार तार हो गयी और
सर्मसार हुए हर जज़्बात तो?
कहा थे? कहा है? क्यों है ये?


3. जीवन तो एक खेला है..

 जीवन तो एक खेला है...
रिश्तों का एक मेला है...
कहने के तो सब अपने हैं
लेकिन मन फिर क्यों अकेला है।
...
कहने को किस्मत वाले हम
दो घरों की मल्लिकाएं हैं हम
पर सच तो ये है कि बस
शील और लोढ़े के बीच
पीस रही एक पिपलिका है हम।।
...
ना जाने कितनी बंदिश हैं
ना जाने कितनी सिसकियां
कोई मर - मर के जीता है
निज स्वप्न सलोने सिता है
फिर उस नन्हे सपने को
सपनों में ही जीता है
जकड़े ऐसे जंजीरों में
चाहे तो भी ना छूट सके
बचपन से बोये जो बीज
चुभन के जीवन भर भाग्य समझ जिये...
...
हाय ये कैसी माया है
अपना जो हुआ पराया है...
क्यों बधी है हम जंजीरों में?
मजबूर क्यों हैं हम ऐसे जीने में?


4. ना जाने किस सोच में पड़े हैं...

ना जाने किस सोच में पड़े हैं...
ना जाने क्या ख्याल बुन रहे हैं
क्यों कोई यूं ख़्वाबों में...?
क्यों आस लगाए बैठे हैं?
जिस दिन ख़ुद को पायेंगे
हर लब्ज बेमाने पायेंगे?
क्यों सोचे कि वह अपना हो?
क्यों आश लगते सबसे यूँ?
मतलब कि इस दुनिया में
हर शक्श मुखौटे पहने हैं।
झूठे रिश्ते नाते हैं
झूठे कसमें वादे हैं
जब कुछ लाया साथ नहीं
तो सोचा कैसे सब अपने हैं...
 



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